भारत के इतिहास में शायद यह पहली बार है जब देश के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा एक लाख से ज़्यादा चिट्ठियों ने एक साथ खटखटाया है। यह कोई साधारण पत्राचार नहीं, बल्कि एक मूक क्रांति है, जो उन बेजुबान जानवरों के लिए लड़ी जा रही है जिन्हें हम ‘आवारा कुत्ते’ कहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश के खिलाफ, जिसमें सरकारी संस्थानों से सामुदायिक कुत्तों को हटाने का निर्देश दिया गया था, देश भर के पशु प्रेमियों ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए ‘लेटर पिटीशन’ का सहारा लिया है। यह एक ऐसा जन आंदोलन है जिसका कोई एक चेहरा या बैनर नहीं है, बल्कि इसकी ताकत आम नागरिकों की सामूहिक चेतना है।

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क्यों उठा विवाद? सुप्रीम कोर्ट के आदेश का आधार और विरोध
इस पूरे मामले की जड़ में माननीय सुप्रीम कोर्ट का सात नवंबर को जारी किया गया एक आदेश है। इस आदेश में देश के सभी सरकारी संस्थानों के परिसरों से आवारा कुत्तों को हटाने के लिए निर्देशित किया गया था। यह आदेश भले ही प्रशासनिक दृष्टिकोण से दिया गया हो, लेकिन पशु अधिकार कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों के एक बड़े वर्ग ने इसे पशुओं के प्रति क्रूरता और अव्यावहारिक कदम माना।
जानकारों का मानना है कि इस तरह से कुत्तों को उनके स्थापित क्षेत्र से हटाने से कई गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं:
अवैज्ञानिक दृष्टिकोण: वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि किसी क्षेत्र से कुत्तों को हटाने पर वहां दूसरे क्षेत्रों से नए कुत्ते आ जाते हैं, जिससे प्रादेशिक संघर्ष और रेबीज फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
पशु क्रूरता निवारण अधिनियम का उल्लंघन: कार्यकर्ताओं का तर्क है कि यह आदेश संसद द्वारा पारित पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 की भावना के खिलाफ है, जो पशुओं की देखभाल और सुरक्षा को बढ़ावा देता है।
अमानवीय परिणाम: बड़े पैमाने पर कुत्तों को हटाने से उनके जीवन पर संकट आ सकता है। दिल्ली की प्रसिद्ध पशु अधिकार कार्यकर्ता अंबिका शुक्ला ने इस आदेश को “जानवरों के लिए मौत की सजा” करार दिया। उन्होंने कहा, “यह आदेश अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक और संसद द्वारा पारित कानून के खिलाफ है।”
इन्हीं चिंताओं को लेकर देश के नागरिकों ने अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट से इस आदेश पर रोक लगाने, इसे वापस लेने और इस पर पुनर्विचार करने की अपील की है।
क्या होती है लेटर पिटीशन? आम आदमी का संवैधानिक हथियार
कई लोगों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि आखिर यह ‘लेटर पिटीशन’ है क्या। भारतीय संविधान आम नागरिकों को यह अधिकार देता है कि वे सार्वजनिक महत्व के किसी भी मुद्दे पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। लेटर पिटीशन या पत्र याचिका इसी का एक माध्यम है। जब कोई व्यक्ति या समूह किसी गंभीर मुद्दे पर सीधे मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर न्यायिक हस्तक्षेप की मांग करता है, तो कोर्ट उसे एक जनहित याचिका (PIL) के रूप में स्वीकार कर सकता है। इस मामले में, एक लाख से ज़्यादा लोगों ने इसी माध्यम का उपयोग कर अपनी आवाज़ शीर्ष अदालत तक पहुंचाई है।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक: एक राष्ट्र, एक आवाज़
इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता इसका देशव्यापी स्वरूप था। यह किसी एक शहर या राज्य तक सीमित नहीं रहा, बल्कि देश के कोने-कोने से लोगों ने इसमें हिस्सा लिया।
लखनऊ और दिल्ली बने केंद्र: लखनऊ के जीपीओ में डॉ. विवेक बिस्वास पत्र पोस्ट करने वाले पहले व्यक्ति बने, जिसके बाद लोगों की लंबी कतारें लग गईं। हालात ऐसे बने कि डाकघर को कई अतिरिक्त काउंटर खोलने पड़े। इन कतारों में वकील, डॉक्टर, गृहणियां, छात्र और यहां तक कि ब्रेल में पत्र लेकर आए दिव्यांग छात्र भी शामिल थे। दिल्ली में भी अंबिका शुक्ला जैसे कई बड़े कार्यकर्ता आम लोगों के साथ लाइन में खड़े दिखे।
छोटे शहरों में भी दिखा जुनून: यह आंदोलन सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं था। जोधपुर और इम्फाल जैसे शहरों में तो डाकघरों में सप्लाई ही खत्म हो गई, जिसके चलते कुछ समय के लिए काउंटर बंद करने पड़े। वडोदरा, हैदराबाद, बैंगलोर और चेन्नई में भारी भीड़ को देखते हुए अलग से काउंटर बनाए गए।
अभूतपूर्व भौगोलिक विस्तार: पश्चिम में दीव से लेकर उत्तर में कश्मीर के कुपवाड़ा और कांगड़ा तक, पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर बंगाल, केरल और तमिलनाडु तक, हर जगह से लोगों ने इस मुहिम में भाग लिया।
File your Letter Petition In Supreme Court: इस पूरे अभियान को `animalwrites.in` नामक एक वेबसाइट के माध्यम से डिजिटल रूप से समन्वित किया गया, जहां 29 नवंबर की शाम तक 50,000 से अधिक लोगों ने अपने पत्र की रसीदें अपलोड कर दी थीं।
‘बैनर-रहित’ आंदोलन की शक्ति
यह आयोजन इस मायने में भी अद्वितीय था कि यह एक ‘बैनर-रहित’ आंदोलन था। किसी एक संगठन, संस्था या व्यक्ति ने इसका श्रेय नहीं लिया। यह स्वतः स्फूर्त रूप से भारत के विभिन्न नागरिकों द्वारा चलाया गया एक सच्चा जन आंदोलन था। इसने साबित कर दिया कि जब नागरिक एक साझा उद्देश्य के लिए एकजुट होते हैं, तो वे एक शक्तिशाली और सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।
अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। एक लाख से ज़्यादा नागरिकों की यह सामूहिक अपील क्या रंग लाती है, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत में सामुदायिक पशुओं के अधिकारों को लेकर एक नई और शक्तिशाली चेतना का उदय हो रहा है। यह केवल कुत्तों को बचाने की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह सह-अस्तित्व, करुणा और एक नागरिक के तौर पर अपनी आवाज़ उठाने के अधिकार की भी लड़ाई है।





